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आँखें / देवेन्द्र आर्य

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यूँ ही बस डबडबा गईं आँखें
आपकी याद आ गईं आँखें

आँखें जैसे लगा रहीं थीं गोहार
मैं मुड़ा तो लजा गईं आँखें

देख कर चैन आ गया जो मुझे
चैन मेरा चुरा गईं आँखें

सूना सूना सा था मेरा चेहरा
माथे बिन्दिया सजा गईं आँखें

मैं ने उनमें पनाह क्या ढूँढी
मेरे भीतर समा गईं आँखें

एकटक बोलती रहीं और फिर
ख़ामुशी बनके छा गईं आँखें

क्या बताना है क्या छिपाना है
बिन बताए छिपा गईं आँखें