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प्रसव / सुशील द्विवेदी

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मघा की बारिशें
नरियाते, कुलांछे भरते-भरते
थक चुकी थी
अब दूर-दूर तक थिर जलभराव था
जैसे पहली बार भैंस थिराई थी
सीमांत के घर भैंसों का थिराना भिनसार होना है l

पूर्वा की अँधेरी रात
हवाओं का सायं-सायं चलना
दीया में चुपचाप 'गाँदी' का गिरना,
और दीये का जल-बुझ उठना
टिड्डों, झींगुरों,मेघों,साँपों का तांडव
स्वप्न में भी भय कर देते हैं।
बाहर छपरे के नीचे,
गाभिन भैंस का बार-बार खुराव
लार टपकना, चिल्लाना,पूँछ पटकना
प्रसव की रात यातनापूर्ण और सबसे लम्बी होती है l

बिटिया का चूल्हे में गाढ़ी आग से दीया बारना,
पुरही काकी का दीया लेकर चुपचाप देखना
बखरी से धान निकालना लड़के का,
और भैंस को खिलाना
काका का बांस की पत्ती काटना,
और रख देना भैंस के आगे l

थनों में दूध का तीव्र कसाव
पेशाब, आंवर का धीरे धीरे गिरना
भैंस का कभी उठना, कभी बैठना
पुरही काकी को रुला देती है
वह कभी देवी को मनाती है,
कभी कुलदेवता को।
कभी सवा सेर लड्डू चढ़ाने,
जल चढ़ाने ,
जलहरी भरने के लिए कहती है,
कभी उपवास रखने को l

बहुत देर बाद
भैंस ने पडिया जना
बहुत देर बाद
पुरही काकी मुस्कुराई
बहुत देर बाद गदेलों ने
पडिया पालने का सपना देखा
सबने पडिया को छुआ,
पुचकारा, सरसों का तेल पियाया
किसी ने नाम दिया,
किसी ने काला सोंटा बाँधा
पुरही काकी बड़ी देर तक देखती रही
फिर जोर से कहा - अमावस में चांद उग आया है l