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असमंजस / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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असमंजस की
पीड़ा बाँचे
कौन यहाँ पर,
बहुत दिनों से
हवा रही है
मौन यहाँ पर
  पथरीली राहों पर
       चलतीं
      नहीं देर तक
     धूप -छाँव की बातें।

विश्वासों में
बहुत देर तक
नहीं ठगाए,
अविश्वास ही
नागफनी बन
चुभते आए ।
इस चुभन में
हर साँस
बहुत देर तक गुमसुम
तारे गिनती रातें।

चन्दन वन की
आस लगाए
पाले विषधर,
सिर्फ़ दंश ही
हमें मिले थे
क़दम -क़दम पर ।
फिर भी हम मुस्काते
रहे रात-दिन सहते
चुप-चुप छल की घातें ।
-0-(23-07-2001)