Last modified on 14 अप्रैल 2023, at 00:09

बचे रहने का अभिनय (कविता) / सुलोचना वर्मा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:09, 14 अप्रैल 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुलोचना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हम ज़िन्दा रहते हैं फिर भी
उस पहाड़ की तरह जो दरकता है हर रोज़
या काट दिया जाता है रास्ता बनाने के लिए
और फिर भी खड़ा रहता है सर उठाए
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हम ज़िन्दा रहते हैं फिर भी
रसोईघर के कोने में पड़े उस रंगीन पोंछे की तरह
जो घिस-घिसकर फट चुका है कई जगहों से
और फिर भी हो रहा है इस्तेमाल हर रोज़ कई बार
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हम ज़िन्दा रहते हैं फिर भी
मिट्टी के चूल्हे में जलते कोयले की तरह
जो जल-जलकर बन जाता है अंगार
और फिर भी धधकता रहता है
बचे रहने का अभिनय करते हुए

हमारी अभिनय क्षमता तय करती है हमारा ज़िन्दा दिखना
और हमारा ज़िन्दा दिखना ही है विश्व की सबसे रोमांचक कहानी