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मैं ! / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

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मैं सुरा का नशा - सा हूँ,
मैं झुकन मदिराभ दृग की !

पूजते प्रतिमा युगों से
बन गया पाषाण चेतन,
किन्तु फिर भी भर न पाया
हाय, निष्ठुर विश्व का मन !
खुल गए मन्दिर - शिवालय,
मैं उठा मदिरा गया पी !
मैं सुरा का नशा - सा हूँ,
मैं झुकन मदिराभ दृग की !

चार तिनके फूस के भी
रह न पाए झोपड़ी पर,
जो व्यथित अपनी व्यथा से
वेदना से दिल गया भर




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