उस इक क्षण ही
महसूसा हुआ कि
दुख और सुख
दोहराये नहीं जा सकते
कि, वह आत्मा में गहरी धँस जाये
और
क़तरा क़तरा ख़ूँ गिरता जाये
कीट्स की बुलबुल के ह्रदय में चुभे शूल की तरह
और
दर्द मर्मांतक हो
पीड़ादायक हो
सब कुछ निक्षुण्ण, सुन्न हो जाये
फिर भी
कविता की संभावनाएँ बची रहें
जिस तरह शनै: शनै: धागा कसता है
उँगलियों में धँस कर
रक्तारंजित हो
दम भर ठहर कर
जहर का तीक्ष्ण स्वाद चख कर
वह फिर
मुक्ति की तरफ़ लौटता है
वृत्ताकार यूँ ही
शनै: शनै:
कत्थई से धवल होते हुए
भारीपन से हल्का होते हुए
सुना है प्रेम व घात
सबकी सुनवाई होती है
समय भी
शिव की तरह कभी कभी
गहरा
ध्यानमग्न होता है!