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पीकता हुआ / प्रेमशंकर रघुवंशी

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पात-पात झरते पेड़ का
धीरे-धीरे ठूँठ बन जाना
उजाड़ देता परिवेश
मकड़ियों के टूटे-फूटे जाले ही
हिलते रहते हवा में वहाँ

सब-कुछ खोकर
एक पक्के विश्वास के साथ पीकता
रोम-रोम से
गुदगुदाने की प्रतीक्षा में
पतियाता जाता
और तब किसलयों के स्वरों में
भर लेता
गिलहरियों की टिहकारियाँ
और पंछियों का संगीत।