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विश्वास / आलोक श्रीवास्तव-२

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मुझे भी है विश्वास
इन्हीं पथरीली चट्टानों के बीच फूटॆगा सोता
यहीं कहीं से उगेगा बीज
जन्मेगा नया युग -
हमारे ही दुखो की नदी तय करता

तुम्हारा यह चेहरा
जिसे हम कभीं चांद की उपमा देते हैं
कभी किसी फूल की
अपने आप में एक रोशनी होगा
तुम हमारी संगिनी
हमारी प्रिया
दूर देश में बाट नहीं जोहोगी
सिर्फ़ गीतों से बहला नहीम लोगी अपना मन
तुम खुद गीत होओगी
निरे कवियों का गीत नहीं
वह गीत जो धड़कता है ज़िन्दगी की आंच में
जो नदी की एक वर्तुल लहर से उठ कर
फैल जाता है सुदूर सागरों तक
गांवों-पर्वतों और वनानियों तक
जिसमें गूंजती है यह धरती
जिसके स्पर्श से हवा
सरसों के कोसों फ़ैले खेतों में
बसंत बन जाती है

बहुत दुख है, टूटन है
इतिहास की सबसे गहन निराशायें हैं
पर जीवन कभीं नहीं होता
हारी हुई समरभूमि
आज और भी अधिक दृढ़ता चाहिये
इन्हीं सब के बीच से जन्मेगा वह युग
जब झील में नहीं डूबेगे हमारे सपने
हमारे साथ सिर्फ स्मृतियां नहीं
तुम भी होओगी.