Last modified on 31 अगस्त 2006, at 18:10

राही से / प्रभाकर माचवे

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:10, 31 अगस्त 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कवि: प्रभाकर माचवे

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना भैया !
याँ हार बन गया अदना दाना, भैया ।

है पता न कितनी और दूर है मंज़िल

हम ने तो जाना केवल जाना भैया !

तकरार न करना जाना है एकाकी
हमराह बचेगा कौन भला अब बाकी

जब सम्बल भी सब एक-एक कर छुटता

बस बची एक झाँकी उन नक्शे-पा की ।

छुट चले राह में नये-पुराने साथी
मिट गयी मार्गदर्शक यह कम्पित बाती

नंगी प्रकृति वीरान भयावह आगे

मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती !