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विदाई / केशव शरण

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ये कैसे शब्द हैं
जो स्मृतियों को जगाते हुए
विस्मृति में लीन होते जा रहे हैं,
ये कैसे पुष्पहार हैं
जो हृदय को घेरते हुए
सम्बन्धों की डोर खोते जा रहे हैं,
ये कैसे उपहार हैं
जिन्हें पाकर दामन से ज़्यादा
दृग गए हैं भर
ये कैसी मुक्ति है
जो क़ैद से ज़्यादा लग रही है कष्टकर !