शरबत का घूँट जान के पीता हूँ खूनेदिल।
ग़म खाते-खाते मुँह का मज़ा तक बिगड़ गया॥
इसी फ़रेब ने मारा कि कल है कितनी दूर।
एक आज-कल में अबस<>व्यर्थ</> दिन गँवायें है क्या-क्या।
ख़ुशी में अपने क़दम चूम लूँ तो ज़ेबा<>मुनासिब</> है।
वो लगज़िशों पै<>लड़खडा़ने पर</> मेरी मुसकराये है क्या-क्या॥
बस एक नुक्तये-फ़र्ज़ी का<>कल्पना-बिंदु का</> नाम है काबा।
किसी को मरकज़े-तहक़ीक़ का<>खोज के लक्ष्य का</> पता न चला॥
उमीदो-बीमने<>आशा-निराशा</> मारा मुझे दुराहे पर।
कहाँ के दैरो-हरम? घर का रास्ता न मिला॥
शब्दार्थ
<references/>