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कवि: डा तारादत्त निर्विरोध

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चलो, अच्छा हुआ

हमने भी झांक लिया

लंगड़ों के गांव का

अंधा कुंआं।


अब तो हैं छूट रहे

पांवों से

पगडंडी-पाथ,

वह भी सब छोड़ चले

लाए जो साथ-साथ।

न कहीं टोकते गबरीले शकुन,

न कहीं रोकती मटियाली दुआ।


हमने ही चाहे नहीं

झाड़ी के बेर,

छज्जे की धूप के

नये हेर फेर।

अरसे से मौन था

भीतरी सुआ।