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मिल बांटकर / प्रेमशंकर रघुवंशी

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घर से चलते वक्त पोटली में
गुड़ सत्तू चबैना रख दिया था माँ ने
और जाने क्या क्या
ठसाठस रेलगाड़ी में देर तह खडे-खडे
भूख लगने लगी तो पोटली खोली
जिसके खुलते ही
पूरा का पूरा आकाश निकल कर
छा गया डिब्बे में
पास की सीट पर
फैलकर बैठे मुसाफ़िर ने सिकुड़कर
बैठने की जगह देते हुए पूछा
कहाँ के हो भैया?
जवाब के पहले
धर दिया उसकी हथेली पर
मुठ्ठीभर चबैना यह कहते हुए
कि घर ने बरहमेश
मिल बाँट कर खाने को कहा है-
तुम भी खाओ
यह सुन वह झाँक कर देखता रहा।
मेरी आँखों में मेरा घर
जहाँ आँगन में बैठी माँ
केड़ा केड़ियों को घास के पूले खिलाती
पड़ोस वाली काकी से
मेरी ही बातें करती दिख रही होगी।