लेखक: कैलाश गौतम
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
आलंबन, आधार यही है, यही सहारा है
कविता मेरी जीवन शैली, जीवन धारा है
यही ओढ़ता, यही बिछाता
यही पहनता हूं
सबका है वह दर्द जिसे मैं
अपना कहता हूं
देखो ना तन लहर-लहर
मन पारा-पारा है।
पानी सा मैं बहता बढ़ता
रुकता मुड़ता हूं
उत्सव सा अपनों से
जुड़ता और बिछुड़ता हूं
उत्सव ही है राग हमारा
प्राण हमारा है।
नाता मेरा धूप छांह से
घाटी टीलों से
मिलने ही निकला हूं
घर से पर्वत-झीलों से
बिना नाव-पतवार धार में
दूर किनारा है।