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सच कहता हूँ मैं / कैलाश गौतम

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लेखक: कैलाश गौतम

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तुमने छुआ, जगा मन मेरा

सच कहता हूं मैं

मेरा तो अब हुआ सबेरा

सच कहता हूं मैं


काया पलट गयी मेरी

दिनचर्या बदल गयी

जैसे कोई फांस फंसी थी

खुद ही निकल गयी

खूब मिला तू रैन-बसेरा

सच कहता हूं मैं।


सारी उलझन सुलझ गयी है

तेरे दर्शन से

मेरे मन में समा गया तू

मन के दर्पण से

मैं हूं तेरा सांप संपेरा

सच कहता हूं मैं


आधा-तीहा नहीं रहा मैं

पूरमपूर हुआ

जैसा बाहर वैसा भीतर

मैं भरपूर हुआ

हुई रोशनी, छंटा अंधेरा

सच कहता हूं मैं।