लेखक: इक़बाल
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सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके आख़िर मैं ने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे मीठे
सारे पुजारियों को मै प्रीत की पिला दें
शक्ती भी शान्ती भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ती प्रीत में है