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विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,
कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौं ।
कहैं रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,
ऊधौ कौं कहन-हेतु ब्रज-जुवतीनि सौं ॥
गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,
प्रेम परयौ चपल चुचाइ पुतरीनि सौं ।
नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं,
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनिं सौं ॥4॥