छैल चिकनिया नाच रही है।
डार कटीली आँखें पापिन
भिगो रही है जीवन-जल से
भेद-भाव से ऊपर उठकर
घूम-घूम कर गाँव-डगर सब
प्यार-पँजीरी बाँट रही है।
रचनाकाल : जनवरी-अप्रैल, 2003
</poem
छैल चिकनिया नाच रही है।
डार कटीली आँखें पापिन
भिगो रही है जीवन-जल से
भेद-भाव से ऊपर उठकर
घूम-घूम कर गाँव-डगर सब
प्यार-पँजीरी बाँट रही है।
रचनाकाल : जनवरी-अप्रैल, 2003
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