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ग्राम श्री / सुमित्रानंदन पंत

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रचनाकार: सुमित्रानंदन पंत

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फैली खेतों में दूर तलक
मख़मल की कोमल हरियाली,
लिपटीं जिस से रवि की किरणें
चाँदी की-सी उजली जाली !

रोमाँचित-सी लगती वसुधा
आयी जौ-गेहूँ में बाली
अरहर सनई की सोने की
किंकिणियाँ हैं शोभाशाली
उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध
फूली सरसों पीली-पीली,
लो, हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कलि, तीसी नीली,
रँग-रँग के फूलों में रिलमिल
हँस रही संखिया मटर खड़ी,
मख़मली पेटियों-सी लटकी
छीमियाँ, छिपाये बीज लड़ी !

अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
लद गयी आम्र-तरु की डाली,
झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली !
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली,
फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैगन, मूली !

पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ीं
पक गये सुनहले मधुर बेर,
अँवली से तरु की डाल जड़ीं !
लहलह पालक,महमह धनिया,
लौकी औ' सेम फली,फैलीं !
मख़मली टमाटर हुए लाल,
मिरचों की बड़ी हरी थैली !
गंजी को मार गया पाला,
अरहर के फूलों को झुलसा,
हाँका करती दिन-भर बन्दर
अब मालिन की लड़की तुलसा !
बालाएँ गजरा काट-काट,
कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन-किन
चाँदी की-सी घण्टियाँ तरल
बजती रहती रह-रह खिन-खिन!

बगिया के छोटे पेड़ों पर
सुन्दर लगते छोटे छाजन,
सुन्दर गेहूँ, की बालों पर
मोती के दानों से हिमकन !
प्रात: ओझल हो जाता जग,
भू पर आता ज्यों उतर गगन,
सुन्दर लगते फिर कुहरे से
उठते-से खेत, बाग़, गॄह वन !

लटके तरुओं पर विहग नीड़
वनचर लड़कों को हुए ज्ञात,
रेखा-छवि विरल टहनियों की
ठूँठे तरुओं के नग्न गात !
आँगन में दौड़ रहे पत्ते,
धूमती भँवर-सी शिशिर-वात,
बदली छँटने पर लगती प्रिय
ऋतुमती धरित्री सद्य-स्नात !

हँसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए-से सोये,
भीगी अँधियाली में निशि की
तारक स्वप्नों में-से-खोये,-
मरकत डिब्बे-सा खुला ग्राम-
जिस पर नीलम नभ-आच्छादन-
निरुपम हिमान्त में स्निग्ध-शान्त
निज शोभा से हरता न-मनज !