Last modified on 30 मई 2010, at 10:08

धुएँ से भी / विजय कुमार पंत

धुएँ से भी कभी अंदाज़ कर लेना
जला है क्या..
कभी उड़ते गुब्बारों से समझ लेना
चला है क्या..

कभी तुम देख लेना मन से,
कैसी है
खलिश हम में ..
लरजते होंठ से छूकर समझ लेना
बला है क्या

कभी तुम सोचकर अपनी ही बातों को
उलझ लेना
मेरी खामोशियों को सुन समझ लेना
फला है क्या..

दुआ मिटने की मेरी और कितने
लोग करते है..
कभी उनके गले लग कर समझ लेना
भला है क्या..