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अपराध / गोपीकृष्ण 'गोपेश'

कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !

कण्टकों की शरण ली
तज सुमन-सुरभित राह मैंने,
दुख न जाए दिल किसी का
आह ! पी ली ’आह’ मैंने !
साधना-पथ का पथिक हूँ,
सान्त्वना का भी न इच्छुक,
दग्ध उर की तप्त श्वासों से
स्वयं मैं ही जला रे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!

डूबती है नाव मेरी,
दूर हैं दोनों किनारे,
गति न विधि की टूट जाए,
हाथ भी मैंने न मारे !
मैं न बोला, मैं न डोला,
कौन सी फिर क्षति गई हो,
देख जो मैंने लिए हैं,
हो गए अंगार तारे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!

बीत जो सुख के गए दिन
अब न फिर से आ सकेंगे,
अश्रुकण मेरे किसी का
दिल न अब पिघला सकेंगे !
यह उजाला, भाग्यवाला —
मैं नहीं हूँ, जानता हूँ,
चिर-निराश्रित आज कैसा
आसरा किसके सहारे !
कौन सा अपराध मेरा,
विश्व क्यों पीड़ा उभारे !!