Last modified on 2 मार्च 2011, at 23:00

आईना / वाज़दा ख़ान

यक़ीन करो मुझ पर
तुम्हारा ही आईना हूँ मैं
वे ख़्वाहिशें जो सींचती रही हैं मुझे
तुम्हें पाने की ही ख़्वाहिश थी

यक़ीन करो जो मुझ पर
ढूँढ़ती थी जब ज़िंदगी साहिल
निगाहों में तुम्हारा ही अक्स हुआ
करता था, वे अनुभूतियाँ
जो अत्यंत रेशमी कोमलता से जीवित थीं

वजूद के भीतर मुझमें
यक़ीन करो जो मुझ पर
उनके सृजनकर्ता तुम ही थे ।