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आस दीपक जलाओ सखे / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

हारता मन हताशा गुफा में अगर, कैद हो आस दीपक जलाओ सखे।
आपदा का भँवर आस तटबंध को, तोड़ पाये न तरणी बहाओ सखे।

जानकर जिंदगी की उलटबासियाँ,
कौतुकी देह का मन कबीरा हुआ।
चाक चलता रहा गीत रोते रहे,
श्वाँस धुन पर रमा तन मजीरा हुआ।
बाँसुरी की तरह जख्म उर में लिये, कृत्य की तान ऐसी बजाओ सखे।
हारता मन हताशा गुफा में अगर, कैद हो आस दीपक जलाओ सखे।

जीवनी का तमस दूर होगा मगर,
सूर्य-सा नित्य बनकर उभरते रहो।
शूल का हर गरल मधु बनेगा स्वयं,
पुष्प-सा यदि हमेशा निखरते रहो।
जागते प्राण सम्बोधि धारें सुनो, चित्त से काम कलुषित हटाओ सखे।
हारता मन हताशा गुफा में अगर, कैद हो आस दीपक जलाओ सखे।

नीति ही आँकती है मनुज को यहाँ,
चित्त की शुचि कलम चित्र ऐसा गढ़े।
प्रेम करुणा सतत जीवनी ग्रंथ के,
सर्ग हों विश्व जिनको हमेशा पढे़।
नित्य पुरुषार्थ कर न्याय नभ से मलिन मेघ दूषण सदा ही भगाओ सखे।
हारता मन हताशा गुफा में अगर, कैद हो आस दीपक जलाओ सखे।