नदिया रुको
बता दो इतना
कब तक यह कल-कल है
आँगन में रोपे गुलाब थे
फूली नागफनी है
पेट पीठ से बाँध तोड़ती
पत्थर हीरकनी है
पूजा-पाठ, धर्म के नाटक
लक्ष्य, वोट की ममता
कोई कुम्भ नहीं दे पाता
हमें कहीं समरसता
माला तिलक-छाप
ये झंडे
लगा,
ढोंग है छल है।
लोकतन्त्र
परिहास हो गया
नायक लगे विदूशक
थूक-थूककर चाट रहे हैं
रक्शक हों या भक्शक
चीर-हरण में,
दुःशासन ही नहीं
युधिष्ठर दोषी
अन्धे थे धृतराष्ट्र
भीष्म तो थे शासन के पोषी
जहाँ शक्ति,
जयकार उसी के
पिटता सदा निबल है।
किसको कोसें,
किसे सराहें
सभी एक थैली के बट्टे
नैतिकता को चाट रहे हैं
कुछ बौने तिलचट्टे
एक न्याय की तुला
अनय का फटता रोज़ गगन है
हैं आँधी के आम
लूटने में हर एक मगन है
सौ सौ प्रश्न झुके कन्धो पर
मिलता
एक न हल है।