क्यों अचानक उल्लसित से
हो उठे
घर-द्वार-आँगन?
कौन आया था अभी
ये आहटें किसने धरी हैं
खुशबुएँ किसके बदन की
इन हवाओं से झरी हैं
कह रही हैं खिलखिलाती
मोगरे की ये लताएँ
कुछ नए अन्दाज़ से
इतरा उठी सी ये फिजाएँ
तानकर कोई गया फिर
भ्रांतियों के
ललित छादन।
नाचता आँगन लगा है
खुसफुसाती हैं दिवारें
खिड़कियों की कनखियों से
सिंहरती सी हैं किवाड़ें
फिर गवाक्षों से
कपोतों के ध्वनन आने लगे हैं
एक मुद्दत बाद सोए घोंसले
फिर से जगे हैं
कर रही हे एक गौरेया
ृसुबह से
स्वस्ति वाचन।
जानता हूँ
तुम न आए
और आओगे नहीं भी
पर कहो कैसे
अकेली याद रह पाए कहीं भी?
ये घिरी काली घटाएँ
बिजलियों की घोर तड़पन
ढीठ पावस लिख रही है
देह पर कैसे प्रकंपन
प्यास पपिहे की अधूरी
व्यर्थ है रस-धार सावन।