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ख़त / पवन कुमार

जाने
क्या सोच के
तेरे ख़त
कल
नदी में
बहाये थे,
ख़त तो
काग“ज“ के थे
गल गए
बह गए
मगर
वो सारे हफर्’ जो
उन पर तूने
लिखे थे
वो सब
अब तक
दरिया में
तैर रहे हैं।