Last modified on 19 अगस्त 2013, at 15:27

जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

जान उस की अदाओं पर निकलती ही रहेगी
ये छेड़ जो चलती है सो चलती ही रहेगी

ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी

दिल रश्क-ए-अदू से है सिपंद-ए-सर-ए-आतिश
ये शम्अ तिरी बज़्म में जलती ही रहेगी

ग़म्ज़ा तिरा धोका यूँ ही देता ही रहेगा
तल्वार तिरे कूचे में चलती ही रहेगी

इक आन में वो कुछ हैं तो इक आन मे कुछ हैं
करवट मिरी तक़दीर बदलती ही रहेगी

अंदाज़ में शोख़ी में शरारत में हया में
वाँ एक न इक बात निकलती ही रहेगी

‘वहशत’ को रहा उन्स जो यूँ फ़न्न-ए-सुख़न से
ये शाख़-ए-हुनर फूलती-फलती ही रहेगी