हृदय में तुमको लिए चुप ही रहा, मैंने —
न कुछ सोचा न कुछ मुख से कहा मैंने,
स्नेहवश सब कुछ सहा मैंने,
किन्तु था वह सभी अत्याचार,
तुम समझ बैठे उसे अधिकार —
मेरे मौन रहने से।
था हमारा शुभ्र शीशे की तरह जो पारदर्शी प्यार,
पड़ गई — पड़ती गई उसमें अपार दरार।
जो समर्पण था सहज — वो बन गया सम्भार।
अपशकुन है मीत ! शीशे का दरक जाना।
कभी मानोगे — अगर अब तक नहीं माना।