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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - १

परमानन्द
आनन्द-उद्बोध
(1)
गले लग-लगकर कलियों को।
खिला करके वह खिलता है।
नवल दल में दिखलाता है।
फूल में हँसता मिलता है॥1॥

अंक में उसको ले-लेकर।
ललित लतिका लहराती है।
छटाएँ दिखला विलसित बन।
बेलि उसको बेलमाती है॥2॥

पेड़ के पत्तो-पत्तो में।
पता उसका मिल पाता है॥
दिखाकर रंग-बिरंगापन।
फलों में रस भर जाता है॥3॥

हरित-तृण-राजिरंजिता हो।
उसे बहु व्यंजित करती है।
गोद में वसुधा की दबकी।
दूब उसका दम भरती है॥4॥

शस्य, श्यामल परिधन पहन।
मन्द आन्दोलित हो-होकर।
ललकते जन के लोचन में।
भाव उसके देता है भर॥5॥

वन, बहुत बन-ठनकर उसको।
पास बिठलाए रहता है।
बने रहकर उसका उपवन।
विकस हँस विलस निबहता है॥6॥

रुचिर रस से सिंचित हो-हो।
बड़े मीठे फल चखता है।
सविधिक आवाहन कर उसका।
वनस्पति निज पति रखता है॥7॥

रमण कर तृण के तरु तक में।
भाँव भव में भरता है।
सहज आनन्द भला किसको।
नहीं आनन्दित करता है॥8॥

(2)

जलधिक के नील कलेवर को।
सुनहला वसन पिन्हाता है।
दिवाकर का कर जब उसमें।
जागती ज्योति जगाता है॥1॥

जब छलकती बूँदें उसकी।
मंजु मोती बन जाती हैं।
जब सुधा-धावल बनाने को।
चाँदनी रातें आती हैं॥2॥

तब ललकते दृगवालों को।
कौन उल्लसित बनाता है।
कौन उमगे जन-मानस को।
बहु तरंगित कर पाता है॥3॥

सरस धाराएँ सरिता की।
सुनातीं अपना कल-कल रव।
मनाती हैं जब राका में।
दीप-माला-जैसा उत्सव॥4॥

नाचने लगती हैं लहरें।
चन्द्र-प्रतिबिम्बों को जब ले।
कौन तब उर-मन्दिर में आ।
बजाता है मंजुल तबले॥5॥

शरद में जब सर शोभित हो।
मानसरवर बन जाता है।
जब कमल-माला अलिमाला।
हँस-मालाएँ पाता है॥6॥

सलिल जब ले इनकी छाया।
ललित लीलामय बनता है।
कौन तब आ वितान अपना।
मुग्ध जन मन में तनता है॥7॥

उड़ा छीटे क्षिति-अंचल में।
कान्त मुक्तावलि भरता है।
किसी उत्साहित जन-जैसा।
उत्स जब उत्सव करता है॥8॥

मुकुर मंजुल गिरते जल में।
दिव्य दृश्यों को दर्शित कर।
उस समय दर्शक के उर में।
कौन ललकें देता है भर॥9॥

मिले सौन्दर्य मलय-मारुत।
कुसुम-कोरक-सा है खिलता।
कौन-सा है वह रम्य स्थल।
जहाँ आनन्द नहीं मिलता॥10॥

(3)

हिमाचल-जैसा गिरिवर जो।
गगन से बातें करता है।
उर-भवन में भावुक के जो।
भूरि भावों को भरता है॥1॥

लसित है जिसके अंचल में।
काश्मीरोपम रम्य स्थल।
जिसे अवलोके बनता है।
विमोहित वसुधा-अन्तस्तल॥2॥