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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - २

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दिवसमणि निज कर से जिसको।
मणि-खचित मुकुट पिन्हाता है।
नग-निकर से परिपूरित रह।
नगाधिकप जो कहलाता है॥3॥

देख कृति जिसकी क्षण-भर भी।
छटा है अलग नहीं होती।
जलद आलिंगन कर जिसपर।
बरसते रहते हैं मोती॥4॥

अंक में जिसके रस रख-रख।
सरसता-सोता बहता है।
वह किसे मानस-वारिधिक का।
कलानिधि करता रहता है॥5॥

ज्योति जग में भर देते हैं।
कलश जिनके रवि-बिम्बोपम।
सहज सौन्दर्य-विभव जिनको।
सिध्द करते हैं सुरपुर-सम॥6॥

पताका उड़-उड़ पावनता।
पता का पथ बतलाती है।
मधुर ध्वनि जिनके घंटों की।
ध्वनित हो मुदित बनाती है॥7॥

भावमय दृश्यों का दर्शन।
भक्ति-रति उर में भरता है।
शान्तिमय जिनका वातावरण।
प्रभावित चित को करता है॥8॥

लसित जिनमें दिखलाती है।
भव्यतम मूर्ति भावना की।
सत्यता शिवता से भरिता।
देवता की बाँकी झाँकी॥9॥

बहु सुमन महँक-महँक महँका।
जिन्हें महनीय बनाते हैं।
दिव्य वे देवालय किसको।
उर-गगन द्युमणि बनाते हैं॥10॥

रमा रमणीय करालंकृत।
कारु कार्यावलि कान्त निलय।
चारुतम चित्रों से चित्रिकत।
गगनचुम्बी नृप-मन्दिर-चय॥11॥

विविधताओं से परिपूरित।
विश्व-वैचित्रयों के सम्बल।
विपुल विद्यालय रंगालय।
उच्च दुर्गावलि रम्य स्थल॥12॥

मनोहर नगर नागरिक जन।
विपणि की वस्तु उत्तामोत्ताम।
धारा धनदों के सज्जित सदन।
दिव्य दूकानें नग निरुपम॥13॥

विविध अद्भुत विभूतियों से।
भव्यता से भूषित जल-थल।
बनाते रहते हैं किसको।
हृदय-सर का प्रफुल्ल उत्पल॥14॥

प्रकृति का है हँसमुख बालक।
आत्मसुख का अमूल्य सम्बल।
हास का है 'आनन्द'-जनक।
स्वर्ग-उपवन विकसित शतदल॥15॥

(4)

सहज अनुराग-राग से जब।
रंगिणी ऊषा भरती है।
पाँवड़े डाल लाल पट के।
अरुण स्वागत जब करती है॥1॥

विहँसती दिशा-सुन्दरी से।
गले मिल जब मुसकाती है।
स्वयं आरंजित होकर जब।
उसे रंजिता बनाती है॥2॥

जब दिवसमणि गगनांगण को।
बना मणिमय छवि पाता है।
धारा को किरणावलि-विरचित।
दिव्यतम वसन पिन्हाता है॥3॥

देख लुटते तारकचय को।
उन्हें अन्तर्हित करता है।
जगा जगती के जीवों को।
ज्योति जन-जन में भरता है॥4॥

प्रभा देकर प्रभात को जब।
प्रभासंयुत कर पाता है।
लोक को उल्लासों से तब।
कौन उल्लसित बनाता है॥5॥

लाल नीले पीले उजले।
जगमगाते नभ के ता।
किरण-मालाओं से बनते।
किसी ललके दृग के ता॥6॥

तिमिर में जगमग-जगमग कर।
ज्योति जो भरते रहते हैं।
जो सदा चुप रह-रहकर भी।
न जाने क्या-क्या कहते हैं॥7॥