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पुकार / लक्ष्मीकान्त मुकुल

चोर बत्तियां घूम गयी थीं
फूस की झुग्गियों की राह में
चले आये थे बच्चे
बधर के कामों से लौटकर
चांद उगा नहीं था
करीब-करीब उगने को था
काली माई के चबूतरे पर खड़े
नीम की पुलुईं पर
कबूतरों के जोड़े
बझ गये थे दानें टोहने की होड़ में
बैलों की घंटियां टुनटुना रही थीं लगातार
टूटता जा रहा था नादों में पसरा
निस्तब्ध्ता का जाल
चिड़ियों के बोल गुम थे
बेआवाज था पत्तों का टूटना
खेतों में पसरा पानी लाल हो चुका था
पश्चिमाकाश के सामने
हरियाली सिकुड़ती जा रही थी
झाड़-पफुनूस की लताओं में बुझती-सी
पुकार उठी थीं धरती की थनें
जैसे गोहरा रही हो मां की घुटती हुई रूह
घुमड़ो आकाश!
रेत होती नदियों में बह निकले कागज की नाव
जुड़ा जाये छाती देखकर पेड़ों की हरीतिमा।