बिजउरह को बन कटि गयो भयो थल छवि हत।
नदीतीर जो रह्यो निरखि जेहि नित मन विरमत॥458॥
जहाँ सत्यसामी की कुटी विराजत नीकी।
निरखि आज लागत वह भूमि भयावनि फीकी॥459॥
ऋतु पति आवत ही पलास बन होत ललित जब।
हम सब ताकी छबि निरखन हित जात रहे तब॥460॥
बहु बालक बालिका सुमन किन्सुक के भूषन।
बनवत पहिनत पहिनावत अतिसय प्रसन्न मन॥461॥
कबहुँ कोउ बुल-बुल बटेर पालन हित फाँसत।
ससक सिसुन गहि कोउ खेलत तिनकी करि सांसत॥462॥
छुधत होत कै थकत जबै बालक गन बन मैं।
चोंका पियत टेरि चरवाहन महिषी गन मैं॥463॥
कोकिल कुल कूजत कूकत मयूर सारस जित।
भाँति भाँति के सौजै दौरत रहत जहाँ नित॥464॥
लहत जितै आखेट शिकारी जन मन भावन।
जहँ निर्द्वन्द ईस आराधत हे विरक्त जन॥465॥
आस पास के जे बन रहे औरहू सुन्दर।
चरत जहाँ पशु पुष्ट, बन्य जन सकत पेट भर॥466॥
तहाँ खेत बनि गये मरत पशु त्रिन बिन निर्बल।
जाबिन होत न अन्न, दुग्ध घृत दुर्लभ सब थल॥467॥
जा कारन सब देश निवासी, भये छीन तन।
हीन तेज, साहस, बल, बिक्रम, बुद्धि मलिन मन॥468॥
भई नहीं छवि हीन जन्म भूमिहिं अपनी अति।
लखियत आस पास सगरे थलहूँ की दुर्गति॥469॥
जहँ आवत जहँ बसत स्वर्ग सुख निदरति हो मन।
वहँ अब होत उचाट चित्त रमि सकत न इक छन॥470॥