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यह शहर और मैं / ब्रजेश कृष्ण

आज से कोई तीस बरस पहले
जब आया था इस शहर में
तब काँख में महाभारत की पोथी दाबे
मुस्कराता हुआ मिला था शहर

युद्ध की छाया तो नहीं थी
पर उजाड़ बहुत था शहर
लोग कम थे, जगह बहुत थी
और तय था मेरी तरफ से
कि मौक़ा लगते ही लौट जाऊँगा
यहाँ से अपने शहर को
जो बहुत दूर था

कब और केसे उड़ता चला गया समय
इस ब्यौरे में जाने का वक़्त नहीं है

आज बहुत पीछे छूट चुकी है
पीछे की दुनियाँ
और तय हो चुका है
कि जब तक हूँ इस धरती पर
रहूँगा इसी शहर में
कहीं भी लौटना अब
नामुमकिन है मेरे लिए

महाभारत को काँख में दाबे हुए
किसी बुजु़र्ग की तरह
मेरे कंधे पर हाथ रखकर
आज कितने प्यार से बताता है मुझे यह शहर
कि अभिमन्यु को आता था
चक्रव्यूह में घुसना, लड़ना और मारा जाना
मगर लौटना तो बिल्कुल नहीं।