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लाठी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

घर की किवाड़ के ठीक सटे
खड़ी है एक टिकी लाठी
जो पल्ला खुलते ही
जोर से थरथराने लगती है
पिता पूजते थे
इस लाठी को
बीज बोने से पहले
और चल देते थे निडर होकर
रात-बिरात
इसको देखते ही
अभर आता है उनका थका हुआ चेहरा
छूते ही मचल उठता है
मेरा छुटपन
शान है यह लाठी
पिता की खिली हुई मूछों की तरह
जिसमें खोजता हूं
मकई के दानें
पगडंडियों की धूल
कुओं की मिठास
और चिड़ियों की चहचहाकट
खिड़की खोलते ही
नदी की ओर से आता है एक झोंका
पिफर तो हमारी नींद में भी
बजने लगती है यह लाठी
कितने काम आती है यह
सबसे बुरे दिनों में भी
जैसे छेद रहा हो
अभावों से भरा हुआ अनंत आसमान
हम सबकी नींव टिकी है
बस इस पर ही
हटते ही इसके यह घर-बार
खंडहर-शेष बच जायेगा
पर कमजोर है यह इतना
जिससे अब की नहीं जा सकती
कभी भी फसलों की रखवाली।