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01:18, 3 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
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<Poem>
हर जगह अज़ीज लगती है
हर रास्ता पहचाना
भोर का सूना आसमान
अंधेरे में सोया ताल
जाड़े की कोई बहुत पुरानी शाम
ऐसा ही लगता है जीवन
कोई संगीत उड़ रहा है चारॊं ओर
फैलता जा रहा है कोई रंग
हर दिशा
तंग रास्तों पर
कल के झरे पत्ते
फड़फड़ा रहे हैं
मुंडेरों पर धूप
बांसुरी बजा रही है
कोई चला जा रहा है सड़क पर
मैं उसे नहीं जानता
शायद पहली बार
इस दरख़्त को आये हैं फूल
हर पंखुरी गौर से देखती
कभी धरती कभी आसमान
मैं सोचता हूं - अपनी उदासी में भी
कितना सुंदर है जीवन !