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'''पद संख्या 195 तथा 196'''
(195)
बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।
कीजै कृपा आपनी नाई।1।
ऐतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई।4।
(196)
काहे को फिरत मन, करत बहु जतन ,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
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