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सात रंग / समीर बरन नन्दी
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19:06, 16 मई 2011
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<poem>
सात रंगों की
गलबहीं
गलबहियाँ
आकाश
को
का
श्रृंगार
किये दे रहे
कर रही
हैं ।
एक
गुरुत्त्वाकरषेनीय
गुरुत्त्वाकर्षनीय
निराकार -आँखों में भर रहा हूँ, मुँह
फ़िराने
फिराने
से कहीं खो न
जाय
जाए
।
रों रहा है मन, एक दाग याद आता है
अनिल जनविजय
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