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सात रंग / समीर बरन नन्दी

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सात रंगों की गलबहियाँ
आकाश का श्रृंगार कर रही हैं ।

एक गुरुत्त्वाकर्षनीय निराकार -
आँखों में भर रहा हूँ, मुँह फिराने से कहीं खो न जाए ।

रों रहा है मन, एक दाग याद आता है
कि दाग पर दाग उग आता है ।

इन्द्रधनुष बनता है लुप्त होता है
एक कण धरकर नहीं रख पाता ।

जिसके अन्तर मे पैठ गया है दाग
वहीं बाँधता है जीवन को - जादू से ।

वहीँ खोजता है - पथ, सारी बाधाएँ ।
तुच्छ समझ, सपनों की खेता है नाव ।

हमारा विश्वास तैयार होता है इन सात रसायनों से
जो पार करता है सुदीर्घ जीवन ।