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16:54, 10 जून 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
एक दिन भोली किरण की लालिमा ने
:क्यों मुझे फुसला लिया था,
एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने
:क्यों मुझे बहका दिया था,
::एक राका ने सितारों से इशारे
:::क्यों मुझे सौ-सौ किए थे,
एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को
:किसलिए जी भर पीया था?
::आज डैनों की पकी रोमावली में
::वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
याद आते हैं गरूड़-दिग्गज धनों को
:चीरने वाले झपटकर,
और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते
::आँख जो धँसते निरंतर
:::गए अंबर में न जलकर पंख जब तक
:::हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,
हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को
:और न लौटे न भू पर,
::चातकी, जो प्यास की सीमा बताना,
:::जल न पीना, चाहती थी,
उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के
::साथी मुझे क्या फिर मिलेंगे।
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
और मेरे देखते ही देखते अब
:वक्त ऐसा आ गया है,
शब्द की धरती हुई जंतु-संकुल,
:जो यहाँ है, सब नया है,
::जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी
:::डाल दी, सीमा लगा दी,
और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,
:कौन ऐसा बेहाया है;
::गगन की उन्मुक्तता में राह अंतर
::की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,
धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,
:::आवर्त ही अक्सर मिलेंगे।
आज भी सीमा-रहित आकाश
::आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,
आज पहले के युगों से सौ गुनी
::मानव-मनीषा उर्वरा है,
::आज अद्भुत स्वप्न के अभिनव क्षितिज
:::हर प्रात खुलते जा रहे हैं,
मानदंड भविष्य का सितारों
:की हथेली पर धारा है;
::कल्पना के पुत्र अगुआई सदा करते
::रहे हैं, और आगे भी करेंगे,
है मुझे विश्वास मेरे वंशजों के
::पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,
::फिर गगन-कंथन करेंगे!
शब्द के आकाश पर उड़ता रहा,
:::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।