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03:29, 28 जून 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=गुंजरन लागीं भौंर-भीरैं केलि-कुंजन मैं / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=सुर ही के भार सूधे-सबद सु कीरन के / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 1
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'''मनहरन घनाक्षरी'''
(''वसंत-शोभा का अनुभव करते हुए जाग्रत होने का वर्णन'')
मेल्यौ उर आनँद अपार मैन सोवत हीं, पाइ सुधि सौरभ समीरन-मिलन की ।
नेह के झकोरन हलाइ उर दीन्हौं, लखि सुखमा लवंग लतिकान के हिलन की ॥
स्वपन भयौ धौं किधौं साँची करतार! इमि, समुझत रीति लखि अंग-सिथिलन की ।
खिलि गए लोचन हमारे इक बार सुनि, आहट गुलाबन के अखिल खिलन की ॥३॥
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