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03:58, 28 जून 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=सुनत सलौनी बात यह / शृंगार-लतिका / द्विज
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|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 1
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<poem>
'''मनहरन घनाक्षरी'''
''(ऋतुराज के दर्शनार्थ उत्सुकतापूर्वक गमन)''
लटपटी पाग सिर साजत उनींदे अंग, ’द्विजदेव’ ज्यौं-त्यौं कै सँभारत सबै बदन ।
खुलि-खुलि जाते पट बायु के झकोर भुजा, डुलि-डुलि जातीं अति आतुरी सौं छन-छन ॥
ह्वैं कैं असवार मनोरथ ही के रथ पर, ’द्विजदेव’ होत अति आनँद-मगन मन ।
सूने भए तन, कछु सूनेई सु मन, लखि सूनी सी दिसान, लख्यौ सूनेई दृगन बन ॥९॥
</poem>