Changes

जब दधि-रिपु हाथ लियौ / सूरदास

19 bytes added, 16:48, 28 सितम्बर 2007
सूरदास प्रभु तुम्हरे गहत ही एक-एक तैं होत बियौ ॥<br><br>
भावार्थ :-- श्रीकृष्णचंद्रने श्रीकृष्णचंद्र ने मथानी हाथ में ली, तब वासुकि वासु कि नाग डरे (कहीं मुझे समुद्र-मन्थनमें मन्थन में फिर रस्सी न बनना पड़े) दैत्योंके दैत्यों के ,मनमें मन में शंका हुई ( हमें फिर कहींसमुद्र कहीं समुद्र न मथना पड़े ) । सूर्यको सूर्य को आनन्द हुआ ( अब प्रलय होगी, अतः मेरा नित्यका नित्य का भ्रमण बंद होगा)। कष्ट के कारण समुद्र संकुचित हो उठा (मैं फिर मथा जाऊँगा)। शंकरजीसोचने शंकर जी सोचने लगे कि (एक बार तो किसी प्रकार विष पी लिया, अब इस बारके समुद्र-मन्थनसे मन्थन से निकले ) विष आदि ( दूषित तत्त्वों) को कैसे पिया जायगा । अत्यन्त प्रेम के कारण (प्रभुसे प्रभु से पुनः मेरा विवाह होगा, यह सोचकर ) लक्ष्मीजीका लक्ष्मी जी का शरीर पुलकित हो रहा है, उनका हृदय आनन्दके आनन्द के मारे शरीरमें शरीर में समाता नहीं (प्रेमाश्रु बनकर नेत्रों से निकलने लगा है)। सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं- प्रभु! आपने ऐसा यह क्या विनोद किया है, जिससे कुछ लोगोंको लोगों को दुःख और कुछ को सुख हो रहा है । आपके ,मथानी पकड़ते ही एक-एक करके यह कुछ दूसरा ही (समुद्र-मन्थनका मन्थन का दृश्य) हो गया है ।