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स्नेह जल / मदन गोपाल लढ़ा

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<Poem>
रेलगाड़ी के अंदर एक दुनिया है-झुलसा हूँकुछ जाने कुछ अनजाने लोगसूर्यनारायण कीबात-बेबात हँसी ठठ्ठातीक्ष्ण निगाहों सेकुछ उम्मीदेंभटका हूँकुछ आशंकाएँ।आग उगलती लू में।
एक दुनिया खिड़की के बाहर हैमैं मरूपुत्रसरपट भागते पेड़मरूभौम कीकल-कल बहती नहरउन्मुक्त आकाश में उड़ते पाखी फाटक खुलने रेत का इंतजार करते लोग।कण हूँमाँ !लड़की के अंदर भी बरसा दोएक दुनिया हैजिसके कैनवास पर खिलता हैउसके ख्वाबों का इंद्रधनुष। जानना चाहती है लड़की; कौनसी गाड़ी पहुँचाती हैउस दुनिया तक।स्नेह-जल
</Poem>
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