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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
खिल उठा फूल सा बदन उसका
उफ़ वो बारीक पैरहन उसका

लाल-ओ-गुल<ref> फूल-फुलवारी</ref>तमाम अपने है
मानता हूँ के है चमन उसका

दिल के बेआब तपते सहरा में
सर्द झोंका है बांकपन उसका

ख़ुशबुएँ घोलता है लहज़े में
पंखड़ी-पंखड़ी दहन उसका

ये जो अशअ़ार हैं उसी के हैं
मेरा लहजा है सारा फ़न उसका

जुफ़्त वो था में ताक़ बन के रहा
एक सन मेरा एक सन उसका

एक चार है कुल मताए फ़कीर
वो ही बिस्तर वही क़फ़न उसका
<poem>
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