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कील / विपिन चौधरी

21 bytes added, 11:28, 1 जून 2012
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माकूल जगह ढूँढ कर हमें
ठीक बीचों -बीच ठोक दिया पहले -पहल बुरा नहीं मनाया किसी ने कंधों में दर्द की परते धीरे- धीरे जमती चली गईजुबाने ज़ुबानें पहले कंपकपाई कँपकपाई फिर बंद होने के कागार कगार तक पहुँच गयीगईं
बहुत बाद में काली आँखों वाला डर हमारा हमदम बन गया
कील का नुकीला सिरा बार -बार अपने होने का अहसास कराने लगा
टाँग दिया गया हम पर
दुत्कार, अपमान, लांछनओ लाँछनों का भार हमारे दामन को सफेद सफ़ेद नहीं रहनें दिया कभी घाट पर घिस-घिस के धोया हमने खुद ख़ुद कोपर हर बार कालिख कालिख़ बची रह गयी गई
हमारी फटी एडियाँ एड़ियाँ देखी तुंम्नें तुमने ? ज़रा मिलाना इन्हें अपने पावों पाँवों से जो चकाचक रहते है तुम्हारे कडकडाते कड़कड़ाते जूतों में
अपने जंग खाए हुये हुए जीवन से ही मालुमात मालूम हुआ कि स्कैप से ज्यादाज़्यादा
कुछ नहीं समझा गया हमें
जो धोने, बिछाने, माँजनें और प्रतीक्षा का काम हम करती रही है उसे
शुन्य शून्य जान कर खारिज़ किया जाता रहा
वह तो रुखसत रुख़सत होता समय कई बात चुपके से कान में कह गयानहीं तो हम में से कई जान नहीं पाती पातीं अपने ही बगलगीरों की मक्कारियाँकुछ चीज़े चीज़ें यहाँ तक की आईना भी हमारे शक का कारण बना
चक्रवात के आमने -सामने बैठ कर जीवन का जो मुहावरा गढ़ा हमने उसे सीधे -सीधे बाँच लियातुम्हारी नजरों नज़रों से बचा कर
हमारी पूरी जमात ने हर बार तुम्हारे ही सपनें सपने देखेयकिन यक़ीन मानों तुम्हारे सपनें सपने ही हसीन थे
तुम नहीं
जो पाठ हमारी दादी पडदादियों पड़दादियों ने हमें सिखाया तमाम उलटबासीयों उलटबासियों और खीँच- तान के बाद भी वह अपनी पकड बनाये बनाए रहाएक मजबूत मज़बूत खूटें से बंधा बँधा रहना हमें सदा रास आता
न जाने हमारी तासीर कैसी थी
हम लात-घूसे घूँसे भी खाती रही रहीं और
खिलखिलाती भी रहीं
और हम जैसा न बनने का प्रण लेते
इधर हमारा लोहा अपनी धार तेज़ करता रहा
भरभराई दीवार पर और मुस्तैदी से चस्पा होने के लिये।लिए।
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