कील / विपिन चौधरी
माकूल जगह ढूँढ कर हमें
ठीक बीचों-बीच ठोक दिया
पहले-पहल बुरा नहीं मनाया किसी ने
कंधों में दर्द की परते धीरे-धीरे जमती चली गई
ज़ुबानें पहले कँपकपाई फिर बंद होने के कगार तक पहुँच गईं
बहुत बाद में काली आँखों वाला डर हमारा हमदम बन गया
कील का नुकीला सिरा बार-बार अपने होने का अहसास कराने लगा
टाँग दिया गया हम पर
दुत्कार, अपमान, लाँछनों का भार
हमारे दामन को सफ़ेद नहीं रहनें दिया कभी
घाट पर घिस-घिस के धोया हमने ख़ुद को
पर हर बार कालिख़ बची रह गई
हमारी फटी एड़ियाँ देखी तुमने ?
ज़रा मिलाना इन्हें अपने पाँवों से
जो चकाचक रहते है तुम्हारे कड़कड़ाते जूतों में
अपने जंग खाए हुए जीवन से ही
मालूम हुआ कि स्कैप से ज़्यादा
कुछ नहीं समझा गया हमें
जो धोने, बिछाने, माँजनें और प्रतीक्षा का काम हम करती रही है उसे
शून्य जान कर खारिज़ किया जाता रहा
वह तो रुख़सत होता समय कई बात चुपके से कान में कह गया
नहीं तो हम में से कई जान नहीं पातीं अपने ही बगलगीरों की मक्कारियाँ
कुछ चीज़ें यहाँ तक की आईना भी हमारे शक का कारण बना
चक्रवात के आमने-सामने बैठ कर जीवन का जो मुहावरा गढ़ा हमने
उसे सीधे-सीधे बाँच लिया
तुम्हारी नज़रों से बचा कर
हमारी पूरी जमात ने हर बार तुम्हारे ही सपने देखे
यक़ीन मानों तुम्हारे सपने ही हसीन थे
तुम नहीं
जो पाठ हमारी दादी पड़दादियों ने हमें सिखाया
तमाम उलटबासियों और खीँच-तान के बाद भी वह अपनी पकड बनाए रहा
एक मज़बूत खूटें से बँधा रहना हमें सदा रास आता
न जाने हमारी तासीर कैसी थी
हम लात-घूँसे भी खाती रहीं और
खिलखिलाती भी रहीं
हमारे नौनिहास आश्चर्य से हमें ताकते
और हम जैसा न बनने का प्रण लेते
इधर हमारा लोहा अपनी धार तेज़ करता रहा
भरभराई दीवार पर और मुस्तैदी से चस्पा होने के लिए।