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01:27, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
नींदों के घर में घुस के चुकाये हिसाब सब
बेदारियों ने तोड़ दिये ख़्वाब –वाब सब
इक धुन्ध ने सहर को कहानी बना दिया
महफूज़ अब तलक हैं सियाही के बाब सब
तनहाइयों में ऊब रही है मशीनगन
जाने कहाँ फरार हुये इंकलाब सब
क्यों चार दिन के हब्स से बैचैन हो मियाँ
बरसेगा अभी आसमाँ का इज़्तिराब सब
इस मादरे- चमन की सियासत पे वार जाऊँ
पंजे में फाख़्ता के दबे हैं उकाब सब
उड़ जायेंगे ये होश किसी रोज़ आखिरश
रह जायेगी धरी की धरी आबोताब सब
हो बेतकल्लुफी कि तककल्लुफ की शक़्ल में
आते है महफिलों में पहन कर नकाब सब
</poem>