ऋषि वाल्मीकि तमसा-जल में करते स्नान!
जल-पक्षी करते कलरव लहरें लहरातीं,
प्रातःकालिक प्रातः कालिक आभा में हँसती इठलातीं।
नभ में खग, झुर्मुट से झरता अविरल संगीत,
ऋषि के स्वर फूट पड़े, 'ओरे, ओरे निषाद्!
सम्मान न पाये सौ-सौ वर्ष, नितान्त –भ्रान्त’नितान्त–भ्रान्त’!
ऋषि का विचलित मानस था विगलित शोक मग्न,
आनन्द तिरोहित, शान्ति नष्ट, स्थैर्य भग्न!