वाल्मीकि / प्रतिभा सक्सेना
रमणीय वनस्थल पावन आश्रम पुण्य-धाम,
ऋषि वाल्मीकि तमसा-जल में करते स्नान!
जल-पक्षी करते कलरव लहरें लहरातीं,
प्रातः कालिक आभा में हँसती इठलातीं।
नभ में खग, झुर्मुट से झरता अविरल संगीत,
प्रमुदित ऋषि वासन्ती सुषमा वन-गूँज गीत!
तट वृक्ष-लताओं से आच्छादित सघन श्याम,
फिर हरित-नील शाद्वल विस्तृत फैले ललाम!
खग-मृगाकीर्ण शोभित जीवनमय क्षिति अंचल,
सुरभित समीर मेंलहराती वन-श्री चञ्चल!
झर-झर झरते, झरने चौकड़ियाँ भरते मृग,
अपनी-अपनी भाषा ने मंगल गाते खग!
क्रौंचों की जोड़ी सुख क्रीड़ा में एक मग्न
उस रम्य प्रकृति मेंचल-चित्रों के छायांकन!
सहसा ही पुण्य भूमि में गूँजा आर्तनाद,
सूरज को अञ्जलि देते, ऋषि-कर गये काँप।
शोणित-रञ्जित शर-बिद्ध क्रौंच गिर पड़ा यत्र,
दौड़ता हुआ हँसता निषाद आ गया तत्र!
उस रक्त-स्रवित तन को बढ़ उठा लिया सत्वर,
अति तुष्ट भाव से झोली में डाला तत्पर!
विस्फारित-नयन देखते ऋषि होकर अवाक्,
जीवन का सुख आनन्द कि जैसे हुआ शाप!
क्रीडा-रत मिथुन, किया शर-हत यह महापाप!
एकाकी क्रौंची का दारुण करुणा विलाप।
शर-बिद्ध क्रौंच की वह मरणान्तक आर्त चीख
अंतस् में फूट पड़ी बन कर आति करुण गीत!
निर्दोष युगल क्रीड़ा-रत थे आनन्द मग्न,
पल भर में सब कुछ अनायास हो गया भग्न!
ऋषि के स्वर फूट पड़े, 'ओरे, ओरे निषाद्!
सम्मान न पाये सौ-सौ वर्ष, नितान्त–भ्रान्त’!
ऋषि का विचलित मानस था विगलित शोक मग्न,
आनन्द तिरोहित, शान्ति नष्ट, स्थैर्य भग्न!
तब दिव्य शक्तियों की स्तुति हो गई मौन,
चुप मंत्र हो गये, और थम गये ऋचा-गान,
उन मित्र-वरुण औ दिवा रात्रि से आगे बढ,
गा उठे मनःवीणा में जग के विकल प्राण!
वह प्रथम छन्द, जिसमें प्रतिबिम्बित था अग-जग,
युग की पुकार जन-जीवन को करती गुँजित।
वह पहला ऋषि जिसकी तन्मयता में विशेष,
कर गई धरा के जीवों की पीडा अशेष!
वह आत्म लोक से उतर जुड़ा लौकिक मन से,
अनुतप्त हो उठा हृदय, कि यह कैसा विधान,
सामर्थ्यवान के हित में निर्दोषों की बलि,
वेदना हुई मुखरित, करुणा थी उपादान!
प्रकटी वाणी युग-सत्यों को करने व्यंजित
वह बहुत सहज अभिव्यक्ति, नहीं थी अतिरंजित!
सब के सुख-दुख से जुड़ सबकी लेकर चिन्ता,
वसुधा कुटुम्ब है, इसी मान्यता को बुनता,
कवि ऋषि का पहला अर्घ्य लोक-जीवन के प्रति,
तमसा तट पर भीगे स्वर में होता अर्पित!
वाल्मीकि, चमत्कृत, चकित, जड़ित विस्फरित नयन!
क्यों अनायास मुख से निस्सृत हो गया वचन?
ले दग्ध हृदय, ऋषि लौट पड़े उस वन-पथ पर,
गूँजते रहे क्रौंची के आर्त रुदन के स्वर!
साक्षात् सरस्वति, उज्ज्वल छन्दस् में लिपटी,
दिव्यानुभूति के सोपानों पर पग धरती,
अवरोहण करती हुई धरित्री के तल तक,
आ उतरी ऋषि के परदुख कातर मानस तक!
चलकर वाणी मंत्रों से, स्तुतियों,सूक्तों से
धरती की व्यथा गा उठी, कैसा करुण राग,
अभिभूत हो गई जीव-जगत की करुणा से,
जल-कण से झलझल, पदतल अंबुज का पराग!
यह कौन शमित करता आकुलता, उद्वेलन,
अवतरित उषा-सा, ज्योतित करता मनः गगन?
रस की फुहार से सिंचता ऋषि का अंतरतम,
निस्सृत हो समाधान करते वे स्निग्ध वचन-
चेतना में सूक्ष्मतम हो व्याप्त हूँ मैं,
वाक् मैं, वाणी, सरस्वति, अखिल संसृति दीप्त करती,
ऋषि तुम्हारे इस अमल अंतःकरण में,
गगन से भू-लोक तक आई उतरती!
पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है,
मैं फूँक भर-भर कर बजाती,
नाद की झंकार हर आवर्त में भर,
उर विवर आवृत्तियाँ रच-रच गुँजाती!
ऋषि, अपने सीमित आत्म-बोध से ऊपर उठ,
तुम सहज व्याप्त हो सको विश्व सचराचर में,
तुम सत्य-शोध, अंतस्थ भाव में रमित रहो,
तो काव्य स्वयं रच जायेगा उस शिव-स्वर में!
उद्भ्रान्त भटकते वाल्मीकि व्याकुल वन में,
इस तरह भ्रमे-भूले देखा नारद मुनि ने!
क्यों हैं अशान्त ऋषिवर, यह कैसा विषम ताप,
विषयों से विरत हृदय मेंदुख क्यों गया व्याप?
“संसार असत्य, यहाँ सुख-दुख,आवेग क्षणिक,
ज्ञानीजन स्थिर हो रहते अति संयत- चित्”!
संवेदनहीन रहूँ, हो पर दुख से तटस्थ,
तो फिर मानवता सारा ही अर्थ व्यर्थ!
यों व्याकुल होकर घूम रहे,निर्जन वन में,
सुधि भूत-भविष्यत् की भी नहीं रही मन में!
उस दारुण अन्तर्पीड़ा का खोजा निदान,
नारद मुनि ने, "तुम रचो काव्य के नये मान”!
"संयत-चित होकर धैर्य धरो, थोड़ा विचार,
बन जाय सृजन का हेतु वेदना दुर्निवार”!
"लेकिन चरित्र औ" कथा कि जो हो परम सत्य,
जो सुन्दर हो, मंगलमय हो, हो ग्राह्य नित्य!
"बहता रहता इन लहरों में क्षिति का जीवन,
पाये हैं जीव-मात्र ने ये ही संवेदन”।
सौन्दर्य-शील औ शक्तियुक्त, मर्याद-धाम,
निस्पृह, अति सत्यशील, विद्यामय, गुण-निधान!
सब सुना दिये प्रकरण कवि-ऋषि को पात्र जान,
फिर नाम महानायक का बतला दिया राम!
होकर विभोर, सुन कर नारद से पुण्य-कथा,
यह लगा कि मार्ग पा गई ऋषि की विषम व्यथा!
"पर सत्य कहाँ खोजूँगा मै कथ्यानुरूप,
रह जाय न मिथ्या रूपक बन सारा स्वरूप”?
सृष्टा की ही क्रीड़ा है सारा विश्व व्यक्त,
जो घटे तुम्हारे भीतर मुनिवर, वही सत्य!
कवि सृष्टा और नियामक अपनी रचना का,
उसका अनुभूत सत्य जो उसमेंमिथ्या क्या?
अंतस्थ हुआ यह सारा रूप- जगत् जिसमें,
सुन्दर- शिव सृजन, सत्य होगा कवि मानस में!
हो सोच लीन, वाल्मीकि मनन चिन्तन मेंरत,
तमसा तट पर अवगाहन करते राम चरित!
जल के प्रवाह मेंलगा उन्हें जीवन बहता,
प्रहरों-प्रहरों ऋतुओं मेंरूप नया धरता!
क्रमशः ही खुलते गये हृदय के वातायन,
ऋषि करते रहे स्वयं ही से कुछ संभाषण!
उस रम्य चरित पर ऋषि ने रच ली रामायण,
पर शान्त हृदय फिर भी न हुआ कर पारायण!
यों ही अशान्त दिन एक-एक कर बीत रहे,
कितने जलकण तमसा प्रवाह के साथ बहे!
दैनन्दिन कार्यों मेंभी मन भटका फिरता,
खोए से रहते भान नहीं कुछ भी रहता!
कोई सिसकी भर-भर रोता वन-प्रान्तर में,
क्या जाग उठी करुणाकुल क्रौंची फिर मन में?
शर- बिद्ध पक्षिणी फिर कंपित रह-रह क्षण-क्षण,
एकाकी घायल रुद्ध पड़ी, वन मेंनिर्जन?
करुणार्त वेदना उमड़ी अंतर में अपार,
सारा वैराग्य हवा हो बिखरा क्षार-क्षार!
क्रौंची का आर्तनाद फिर-फिर मन मेंउठता!
सम्पूर्ण शान्ति सन्तोष तिरोहित कर जाता!
वे एक पहेली का न खोज पाये उत्तर -
नारी नर मेंहै क्या कोई तात्विक अंतर?
इसका उत्तर मुनि नारद के भी पास कहाँ,
उनके विरक्त उर को होता आभास कहाँ?
औ शान्त न हो पाई अंतर की व्यथा करुण,
वन-वन घूमेंऋषि मन मेंले अशान्ति दारुण?
फिर कोई क्रौंची बिद्ध पड़ी वन प्रान्तर में,
कुछ व्याकुलता- सी जगी न जाने अंतर में!
वन-पथ पर बढ़ते थे स्पष्ट रुदन के स्वर,
धीरे-धीरे घटता जाता था वह अंतर!
आगे बढ़ आये वाल्मीकि, आश्चर्य-चकित,
यह दृष्य वास्तविक या नयनो में भ्रम चित्रित!
घासों पर तरु से टिकी, नयन मूँदे निश्चल,
यह कौन यहाँ बैठी एकाकी और शिथिल?
तरुपात अचानक गिरा पवन से उद्वेलित,
कुछ चौंकी रमणी, नयन उठे भय से पूरित!
सम्मुख थे मूर्तिमान तप से ऋषि खड़े हुये,
नयनो मेंकरुणा के कण मणि से जड़े हुये!
कैसे पदार्पण हुआ यहाँ दारुण वन में,
अन्यथा न समझें, देवि, आप अपने मन मे?
मैं वाल्मीकि, निकटस्थ आश्रम है मेरा,
अपना परिचय देकर उपकार करें मेरा!"
जो हूँ सम्मुख हूँ ऋषिवर,करें न कुछ संशय,
जिसने त्यागा उस माध्यम से क्यों हो परिचय?
तन क्षीण मातृपद की गरिमा का भार लिये,
सुकुमार सुलक्षण देह, कि श्री आकार लिये?
शब्दों मेंवाणी में,मुद्रा मेंकुछ ऐसा-
सम्मान तेज औ" करुणा के मिश्रण जैसा!
यह मात्र न नारी देह मूर्त साधना यहाँ,
वाणी हो जाये मौन प्रखर भंगिमा जहाँ!
"अब देवि, चलें आश्रम मेंहो विश्राम सहज,
ऋषि-पत्नि और ऋषि-कन्यायें हैं वहाँ सुलभ!'
'पहले ही लेकिन ऋषिवर करलें कुछ विचार,
इसको भी कोई नाम न दे दे अनाचार’?
'बस, बस, पुत्री' ऋषि ने कानो पर हाथ धरे!
कुछ समझे से होकर विमूढ रह गए खडे!
रमणी का समाधान करते फिर बोल उठे
"पितु-गृह में स्वागत पग धारो निश्शंक शुभे!
कुछ प्रश्न जागने लगे कि यह है कौन यहाँ?
वह कौन त्याग कर जिसने छुडवा दिया यहाँ?
अति क्रूर मानवी संबंधों का कैसा क्षय!
यह गर्हित कृत्य किया किसने होकर निर्भय?
नारी जीवन की ऐसी स्थिति में विशेष,
जब वाञ्छित हो अति स्नेह सुरक्षा देख-रेख,
इस भाँति अकेला छोडा दुर्गम वन में ला!
किसने अपना गार्हस्थ कलंकित कर डाला?
सर्जन की क्षमता पाप कि नारी देह कलुष,
सुख भोग परे हो बनता अति निर्लिप्त पुरुष,
अधिकार सभी पा हो जाता दायित्वहीन,
नैशान्धकार में बैठे ऋषि अति सोचलीन!
नारी की सौम्यशीलता पर कर गया वार
औचित्य,न्याय अथवा अबाध पुरुषाधिकार?
आभासित होने लगा न्याय को छला गया
ऋषि-मानस में सोया सृष्टा कवि जाग गया!
ऋषि वाल्मीकि रहते उद्विग्न और उन्मन,
चल रहे कार्य सारे, जीवन का नियमित क्रम!
दारुण से दारुणतर अंतस्थल मेंमंथन,
दारुणतम इस क्रौंची का यह नीरव क्रन्दन!
बस एक प्रश्न रह-रह कर जो आ रहा उभर
नारी मेंनर मेंक्या कोई तात्विक अंतर?
अनवरत हृदय में उठता ऊहापोह कठिन,
मस्तिष्क निरन्तर चक्रित और भ्रमित क्षण-क्षण!
आई नारद की बात याद, कुछ हुये सुचित,
विशृंखल भाव-विचारों को करते संयत!
कैसे प्रस्तावित करें जोड कर घटनाक्रम,
कोरे भुजपत्रों पर हो पाये जो अंकन!
भूमिका बनाते सोच गये सबका उद्भव,
देवों-दैत्यों से रक्ष-यक्ष नर-वानर तक ;
फिर मानव का इतिहास विविधतामय संस्कृति,
उनकी चिन्ता-धारा में होने लगे विवृत!
नर-नारी के संबंध विकसते नये सदा,
कितने स्तर, कितने विचित्र हो यदा-कदा!
यदि काम यहाँ है जीव-मात्र की मूल वृत्ति,
क्यों नारी पर ही अंकुश नर को मुक्त तृप्ति?
उचटा-सा मन ऋषि निकले कुटिया से बाहर, ,
चल पडे लीन, बिन सोचे-समझे कहाँ-किधर!
रुक गये अचानक वाल्मीकि देखते चकित-
एकाकी नारी जैसे छाया हो विजड़ित!
तमसा-तट, बियाबान,
बस तारों की उजास,
उस शिला-खण्ड पर बैठी,
ज्यों मूर्तित विषाद!
आभास पा गये वाल्मीकि उस ही क्षण में
नारी नर से ऊँची है अपनी गरिमा में!
इस विषमकाल में त्याग सका है जो पशु-नर
उसको तो देना ही होगा समुचित उत्तर!
उठ वाल्मीकि, करुणा को रूपायित करने,
इस प्रथम छन्द में जग-जीवन के स्वर भरने!
आकार ले उठी कथा जोड़कर भटना-क्रम
कोरे पृष्ठों पर लगे उभरने नव अंकन