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16:05, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
एक औरत ही आदम की तक़दीर थी
या हवस की गुफाओं की जागीर थी
हर कड़ी का बदन खौफ़ में क़ैद था
सच को जकड़े हुये एक जंजीर थी
फ़र्ज़ की सूलियों पे मैं खामोश था
चारसू गूंजती मेरी तक़दीर थी
वक़्त ने म्यूजियम में सजाया मुझे
उसकी दीवारों पर मेरी तहरीर थी
आइनों के बदन पर दहकते हुये
पत्थरों की विवशता की तस्वीर थी
एक 'सारा शिगुफ्ता1 थी इक थे 'सर्इद2‘
जैसे रांझे की आहों में इक हीर थी
क्या मुक़द्दर था परछाइयों का 'कंवल’
कोर्इ दीवारो-दर थे नत दबीर थी।
1. कराची की एक शायरा 2. सारा के प्रेमी।
</poem>
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